ज़िन्दगी अपनी राफ्तार से गुज़रती जाती है और इसी दरमियां एक ऐसा लम्हा आता है जब हमें हैरत होती है कि क्या हम सचमुच किसी इन्सान से मोहब्बत में हैं या फिर मोहब्बत के एहसास के साथ ही मोहब्बत में पड़े हैं । कोई इंसान जुदाई के मुत' अल्लिक़ कैसे बात करता है? क्या हमारे पास किसी ऐसी बात को बयाँ करने के लिए सहीह लफ्ज़ हैं जो बिलकुल मा'मूली हों और पूरी तरह ग़ालिब हों और जो हमें हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से बाहर निकालकर अपनी खुद की हस्ती से ज़ियादा बेशतर महसूस करवा दें। बूँदों की झिलमिल खिड़कियाँ, दो लोगों के एक रिश्ते के बन्धन में होने के बावस्ता बड़े अज़ीम वाक्रयों और साथ ही रोज़ाना की फ़िजूल बातों को देखने के बेहद अंदरूनी झरोखे की तरह है। यह झरोखा आपके सामने मौजूदा कंटेम्प्रेरी दौर में मोहब्बत की एक गहरी और दिल-गुदाज़ तसवीर पेश करता है। यह मोहब्बत और मोहब्बत के खो जाने के बाइस दो लोगों की फ़िक्र के बारे में एक सीधा सादा नाटक है- क्या यह खोई हुई मोहब्बत थी या उससे कहीं ज़ियादा कुछ और? क्रिटिक के हवाले से मुसलसल एक ही रूटीन के साँचे में ढली, एक छत के तले रहती हुई मोहब्बत से भरी दो रूहें अपनी ज़िन्दगी में न सिर्फ़ ताज़गी बल्कि जिंदगी का मक़सद भी खो बैठती हैं। दिन-ब-दिन बढ़ती मायूसी और अकेलेपन से वो दोनों इस कदर बोझिल हो जाते हैं कि सूरत-ए-हाल बदलने की खातिर अपने हमसफ़र तक बदलने की सोचने लगते हैं। यह मिड-लाडाक क्राइसिस सिर्फ शहरी अपर मिडिल क्लास की ही हक़ीकत नहीं रही बल्कि अलग अलग सोसायटीज़ के भीतर तक पहुँच चुकी है और इसके अंजाम बेहद दर्दनाक हैं। ओमकार भाटकर अपने नाटकों में किरदारों के मार्फत खुद-ब-खुद ही बेमक़सद हुई जाती ज़िन्दगी के पहलुओं, रिश्तों के बीच के सूनेपन और इंसानी ज़िन्दगी के अकेलेपन की दरियाफ्त करते रहते हैं। एक बेज़ारी भरे रूटीन में बेमानी और बेकार से लम्हे टाइम बम की टिक टिक की तरह किसी अनहोनी के करीब बढ़ने लगते हैं। ज़िन्दगी के अहम मोड़ों पर फैसले न ले पाना एक कभी न खत्म होने वाला सिलसिला बन जाता है। अनगिनत माइको-स्पेसेज़ के ज़रिये यह नाटक भौजूदा दौर में मोहब्बत और एक साथ होने के एहसासों और मायनों पर बहुत से बुनियादी सवाल उठाता है। - भारती बिरजे दिग्गीकर पोएट, ट्रांसलेटर
Raindrops on my window Hindustani version
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- Omkar Bhatkar
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